ज़ख्म जब भी देखा मैंने अपने नैनों में एक सपना, तब से लगी समझने सारे जग को बिल्कुल अपना।
मैं दीवानी अपनेपन की, या दुनिया बेगानी, गूँज रही मन की घाटी में बरबस यही कहानी।
ये कैसे अजीब लम्हें है, या दीवानापन है, सब पागल हैं या मेरे ही मन का पागलपन है।
न भूल पाऊँगी तुम्हारा नाम, याद करुँगी हर पल हर शाम, क्यूँ दिया इस नाज़ुक दिल को ज़ख्म? होगा न असर अब लगाकर मरहम !
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15 comments:
बकौल मिर्ज़ा ग़ालिब दर्द मिन्नत कश ए दवा ना हुआ |ये ना अछा हुआ बुरा ना हुआ|| happy lohdee
बहुत सुंदर जी आप की यह कविता
सुन्दर रचना और भाव
Beautyful poems followed by beautyful paintings.
nice poem .
बहुत सुन्दर कविता है जी!
बधाई!
अच्छी रचना।
bahut hi sundar aur dardbhari rachna.
सुंदर तश्वीर और उतनी ही सटीक अभिव्यक्ति.
बहुत ही सुन्दर भाव लिये हुये अनुपम प्रस्तुति ।
उर्मी ,
अरसा बाद आना हो सका .लेकिन आज अगला पिछला सब पढ़ आनंद आया ..........
रसगुल्ले ने तो मिठास ही भर दी :)
मैं दीवानी अपनेपन की,
या दुनिया बेगानी,
गूँज रही मन की घाटी में बरबस यही कहानी।
बहुत सुन्दर कविता
अच्छी प्रस्तुति
बधाई !
बहुत सुन्दर कविता है जी!
बधाई!
maaf karna babli ji kai dino se bahar gaya hua tha blog par nahi aa saka....
behtreen..
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