आसां नहीं है राहें आसां नहीं है राहें, बुझ सी गई है निगाहें, थककर हार जाऊँ मैं कैसे, फिर से प्रशस्त करनी है अपनी बाहें ! प्रशस्त होती ज़िन्दगी पे, काली घटा है छाई, कालचक्र की मनोदशा को, अब तक समझ न पाई ! आर्थिक मंदी की चपेट से, डूबता हुआ सव मंजर, सजी संवरी ज़िन्दगी में, चुभाता कोई खंजर ! सपनें सजाये चली थी घर से, किसीको आँचल में सर छुपाये, वक्त की दरिया ने ऐसा डुबोया, ज़िन्दगी भी गई और गई पनाहें ! |
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Friday, October 9, 2009
Posted by Urmi at 11:06 PM
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15 comments:
सत्यता को आइना दिखाती
आपकी ये रचना लाजवाब रही।
बधाई!
Beautiful wording !! Description about the recession is really touchy !! Nice post..My wishes too..
ज़िन्दगी के संघर्ष का सौंदर्य बोध दिखाई देता है।
आर्थिक मंदी की चपेट से,
डूबता हुआ सव मंजर,
सजी संवरी ज़िन्दगी में,
चुभाता कोई खंजर !
इसे कहते हैं कविता के सामाजिक सरोकार और यह हर कविता मे होना चाहिये ।
रचना लाजवाब
बधाई!
ओह, नैराश्य से बाहर आना चाहिये।
manobhaavon ko shabdon mein bahut saralta se uthara hai...bahut badhiya...
Nairashya bhi isi jeevan ka ang hai...par ismein dube rahna bhi theek nahi...
प्रशस्त होती ज़िन्दगी पे,
काली घटा है छाई,
कालचक्र की मनोदशा को,
अब तक समझ न पाई !
एक अलग तरह की भावपूर्ण कविता
प्रभावित हुआ पढ़कर
आभार एवं शुभकामनायें
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क्रियेटिव मंच
बहुत सुन्दर रचना । आभार
ढेर सारी शुभकामनायें.
SANJAY
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
ये कविता किसी निराशा को अभिव्यक्त कर रही है.मैं तो इतना ही कहूंगा समय परिवर्तनशील है
आज का दिन ढलता है
तो अंधकार होता है
फिर से आता है सवेरा
फिर नया सूरज और
नया प्रकाश होता है
जीवन के यथार्थ की झलक दिखाती सुन्दर कविता।
हेमन्त कुमार
प्रशस्त होती ज़िन्दगी पे,
काली घटा है छाई,
ज़िन्दगी फिर भी प्रशस्त ही रहेगी
सपनें सजाये चली थी घर से,
किसीको आँचल में सर छुपाये,
वक्त की दरिया ने ऐसा डुबोया,
ज़िन्दगी भी गई और गई पनाहें
wah bahut achi panktiyan hai ye
baliji aapko dewali mubarak ho...
एक अलग तरह की भावपूर्ण कविता
प्रभावित हुआ पढ़कर
लाजवाब
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